Friday, July 8, 2011

जीवन उत्सव है ये ...चलते रहना चाहिए ........

                             एक बार मैं और पिता जी ...हम लोग मोटर साईकिल से कहीं जा रहे थे .......अचानक एक चिर परिचित सी गंध आयी उन्हें ...वो अनायास ही बोल पड़े ....अरे यार बचपन याद आ गया ........दरअसल हम लोग एक तालाब के पास से गुज़र रहे थे ....बरसात का मौसम था और तालाब में सनई सड़ रही थी और उसकी  महक ....दुर्गन्ध तो मैं नहीं  कहूँगा .......चारो और फ़ैल रही थी ......पहले पूर्वांचल में सनई यानी  पटसन ( शायद ) की खेती होती थी ...यह एक सरकंडे  नुमा घास होती है लम्बी लम्बी ....पक जाने पर इसे काट के तालाब में डाल देते थे ....कुछ दिनों में सड़ने लगती थी .....वही गंध चारों और फैलती थी ............फिर इसे निकाल के इसका छिलका उतर लेते थे .........फिर साल भर घर के बुजुर्ग उससे रस्सी बनाते थे और उसी से चारपाइयाँ ....जानवरों के पगहे ,कुँए की डोर और कृषि में काम आने वाली बेहद मज़बूत रस्सी बनती थी .........सो उस दिन भी उस तालाब से वही चिरपरिचित  गंध आ रही थी .....हिन्दुस्तान बड़ी तेज़ी सा बदला है इधर ....कहाँ की सनई  और कौन सी रस्सी ...अब सब ready made है ......ऐसी ही सोंधी  सोंधी सी खुशबु आया करती थी कभी गाँव से जब भाड़ झोंक के दाना भूनती थी गाँव की भड भूजन .....हमारे यहाँ उसे भरसाय  बोलते हैं ......और एक जात है गोंड़.... जिसका पैत्रिक पेशा ही दाना भूनना होता था ........शाम को जब भरसाय से धुआं उठाना शुरू होता तो चल पड़ती थी घर की माताएं दाने ले कर ....चना ...मक्की ...लाइ ......और ना जाने क्या क्या .....फिर वहां घंटों गप्प सड़ाका भी होता ...और देर शाम दाने भुनवा के लौटती ...........सब बदल गया गाँव में भी .....पर हाँ एक चीज़ है जो नहीं बदली ....और न कभी बदलेगी ......ऐसा मुझे विश्वास है ........गाँव में जब कडाके की गर्मी पड़ रही होती है ....जून में ....जब ताल तलैया  सब सूखने लगते हैं तो एक गज़ब का उत्सव होता है पूर्वांचल में ........इस पे आज तक किसी discovery   या NGC ने documentry नहीं बनाई ,पर है बड़ा मजेदार वो उत्सव ..... आज मैं आपको उसका किस्सा सुना रहा हूँ ...........हाँ तो भैया जब गाँव के किसी सार्वजनिक ताल में पानी जब नाम मात्र का रह जाता है तो एक दिन गाँव के सब लड़के औए अधेड़ और कुछ शौक़ीन मिजाज़ बूढ़े .....जिनका बचपन अभी तक जिंदा है ...वो सब जुट जाते हैं तालाब के पास मछली मारने .......तो फिर बाकायदा प्लानिंग बना के उस तालाब का बचा खुचा पानी उबह देते हैं .....यानी खाली कर देते हैं ....अब लिख देना तो बहुत आसान है पर उस पानी को उबह देना अपने आप में एक बड़ा काम है ....पुराने जमाने  में तो सब बच्चे लग जाते थे और हाथों से ही या फिर जो कुछ मिला ...थाली ...परई  .....कुछ भी उसी से पानी उलीचते थे ...अब वो पानी जाता कहाँ होगा ....सो तालाब के सूखे हिस्से में एक मोटी सी मेढ़ बना के उसके उस पार पानी उबहते थे ....इसमें सब लपटते थे तो 4 -6 घंटा लग जाता था ...कई बार तो पूरा दिन भी ...अब तो लोगों के पास डीज़ल इंजन हो गए हैं सो अब ये काम मात्र एक दो घंटे में भी हो जाता है ........फिर शुरू होता है मछ्ले पकड़ने का सिलसिला ...अब मछलिय भी दो किस्म की होती हैं ...एक जो पानी में ऊपर रहती हैं वो तो सब बड़ी आसानी से पकड़ ली जाती हैं ....पानी कम होना शुरू हुआ तो शिकार शुरू .........पर असली लड़ाई शुरू होती है  उन मछलियों से जो कीचड में ....वो भी गहरे कीचड में रहती है ......उन्हें पकड़ना हंसी खेल नहीं ...सो जो एकदम एक्सपर्ट लड़के होते हैं वही पकड़ पाते हैं उसमें भी एक होती है सिंघी .......गहरे कीचड में रहती है ...और बड़ा खतरनाक डंक होता है उसका .......एकदम बिच्छू जैसा ........इसलिए उसे experts ही पकड़ पाते हैं ....फिर भी 2 -4 को तो वो डंक मार ही जाती हैं ..........फिर जो रोआ राट मचती है थोड़ी देर के लिए ......  फिर सब ठीक हो जाता है और जल्दी ही सेना जुट जाती है काम में ...एक और होती है मांगुर ...वो भी बड़ी कीमती मछली है ...उसकी पीठ में कांटे  होते हैं ...बड़े नुकीले .......उसे भी सब नहीं पकड़ पाते .........अब इस उत्सव के जो रोमांच है वो है पूरे गाँव के लोगों का इसमें participation .....छोटे बड़े सब ,उंच नीच, भेद भाव भूल के लग जाते है .....कड़ी धूप में सारा दिन, कीचड में लथ पथ ........और फिर टीम भावना ...वाह ...उत्साह ....गज़ब का .......आज कोई काम चोरी नहीं करता ........और शोर शराबा ....हो हल्ला........ हा हा  ही ही....... अररररे निकल गयी ....अरे तू हट ....मुझे पकड़ने दे ........अरे सिंघी है....हट हट ....अबे हट ......मार देगी ना तो रोता फिरेगा ........और तब तक किसी को मार दिया ...और फिर वो पिल्ले की तरह चाऊं  चाऊं  रोता फिरा थोड़ी देर ...... कुछ देर तालाब से बाहर निकल के बैठा ...फिर सब भूल भाल के फिर कूद पड़ा .........मछली पकड़ी ...हाथ से फिसल गयी ....अररररे ...एक किलो की रोहू थी ....कोई बात नहीं कहाँ जायेगी ...और तभी एक मिनट बाद ही किसी और ने पकड़ ली ............पर एक बात है जनाब , पूरी की पूरी मछली एक जगह इकट्ठी होगी ........फिर शाम को पूरी इमानदारी से बराबर बंटेगी ..........और फिर वहां कोई भेद भाव नहीं .....फिर क्या तो ठाकुर साहब ..और क्या यादव जी और क्या मुसहर ........इस खेल में सब बराबर हैं ........अब हर आदमी ने सहयोग दिया है भाई ...किसी ने कुछ किसी ने कुछ .....मेरे जैसे अगर कुछ न भी करें तो तालाब के किनारे बैठे तो रहे .....सबके लिए पीने का पानी तो लाये बाल्टी भर के ...सो हिस्सा बराबर लगेगा भैया ......अब शाम को सारी मछली एक जगह इकट्ठी है ...फिर मछली का वर्गीकरण ......अब पचास किस्म की मछली होती है एक natural तालाब में ...सो अब  अलग अलग ढेर लगेगा सबका .....अब भैया सिंघी और मांगुर तो सबको चाहिए .........क्योंकि वही सबसे tasty होती है ......सो पूरी इमानदारी से बंटती है ....अरे भाई इसका परिवार बड़ा है ...इसको ज्यादा दे दो ......अरे कोई बात नहीं मेरी कम कर दो भैया हमारे यहाँ सिर्फ चार लोग हैं खाने वाले ..........अरे भाई उनके घर से कोई नहीं आया आज ....लड़के बाहर गए थे ...फिर भी हिस्सा लगेगा भैया ..............अरे इनको सिंघी न मिली ...कोई बात नहीं मांगुर दे दो .....फिर नंबर आता है पढिना  का .........उसकी भी बहुत डिमांड रहती है .......फिर कवई ...गिरई  ....रोहू ...भाकुर .....नैन .....टेंगना .....और ना जाने क्या क्या ...सबके अलग अलग शौक़ीन हैं ..........अरे ये टेंगना है ......इसका जूस बहुत अच्छा बनता है ....अब एक होती है जिसे कहते हैं सिधरी .........ये एकदम छोटी छोटी होती है ........इतनी छोटी की यूँ समझ लीजिये की पाँव भर में  200 पीस ...पर भैया इसके भी शौक़ीन होते हैं लोग ...इसे अच्छी तरह फर्श पे रगड़ के साफ़ कर के तवे पर भून के खाते हैं ....तो भैया शाम ढलते ढलते शिकार ख़तम हुआ ....पूरे सेना शानदार विजय प्राप्त कर के लौट रही है ....काश मेरे पास इस शिकार की फोटो होती ....कभी मौका मिला तो ज़रूर खीचूँगा .......सब लोग  कीचड से सने ऊपर गर्दन  तक ......कमर में सिर्फ एक कपडा लपेट रखा है ...नंगे बदन ........घर पहुंचे ........तब तक घर पे बनाने की तैयारी शुरू हो चुकी है .........प्याज कट रही है ....लहसुन अदरक छिल रहा है ......सरसों पीसी जा रही है सिल पर ........यहाँ भी कमान लड़के ही सम्हालते हैं ..........देर रात तक बनती है .....फिर मिल बाँट कर खाते हैं सब . अगर किसी के घर में नहीं बनती तो वो अपना हिस्सा ले के किसी दोस्त मित्र के यहाँ पहुँच जाता है ............पर ये पुरुषों का उत्सव है ........औरतें ...लड़कियां ????? वो बेचारी कहीं नहीं हैं scene में .....बस रोटी बना देती हैं उस दिन ........ .......वैसे कभी कभी छोटी  लडकियां , 8-10 साल  तक की बच्चियां शामिल  हो जाती  हैं  .......ज़बरदस्ती .......पर हमारे देश में बेचारी औरतों को ऐसे मौज मस्ती के आयोजनों से दूर ही रखा जाता है .......पर आज इस पोस्ट में इस्पे ज्यादा लिखने पर विषयांतर हो जाएगा ( जल्दी ही लिखूंगा इस विषय पर भी ).
                                                    ज़माना बदल गया ......मौज मस्ती जीवन से गायब हो रही है ...बड़ी तेज़ी से ....फिर भी कुछ लोग हैं जो मौका निकाल ही लेते है ..........जीवन उत्सव है ये ...चलते रहना चाहिए ........

5 comments:

  1. padh ke hi maze le liye maine toh :D

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  2. गप्प सड़ाका

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  3. "पटसन की गंध" - वाह, बचपन और गाँव की यादें ताजा कर दी - रोचक आलेख - बहुत बढ़िया

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  4. सन (पटसन) की रस्सी तो मेरे दादाजी भी खूब बनाते थे। आज भी उनके हाथ की बुनी 1-2 चारपाईयां बची हैं घर में
    इस उत्सव की जानकारी देने के लिये धन्यवाद

    प्रणाम

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