पुरानी बात है .उन दिनों हम दोनों मियाँ बीवी की घुमक्कड़ी पूरे शबाब पे थी .तकरीबन हर शुक्रवार ही हम लोग निकल पड़ते थे .उन दिनों गाँव में रहते थे .जिला गाजीपुर में .और कुछ न हुआ तो बनारस ही घूम आते थे . पर उस दिन कहीं लम्बा जाने का प्रोग्राम था पर कहाँ, ये पता न था .खैर घर से निकले .घुमक्कड़ की ये खासियत होती है की उसे रेलवे का टाइम टेबल तकरीबन कंठस्त होता है .फिर अपनी तो मास्टरी थे रेलवे टाइम टेबल में .कई बार तो अब भी यार दोस्त मुझसे पूछ लिया करते हैं .......यार इस समय फलां जगह से फलां जगह जाने के लिए कौन सी ट्रेन मिलेगी ......सो उस दिन मुझे ये आईडिया था की इस समय बनारस से रांची जाने के लिए ट्रेन मिलेगी .रांची के बारे में बहुत सुना था और वहाँ जाने का मूड था .स्टेशन पहुंचे तो रांची वाली गाड़ी में अभी घंटे भर की देर थी .और सामने प्लेटफोर्म पे बुन्देल खंड लगी हुई थी .सो आनन् फानन में प्रोग्राम चेंज हो गया और रांची के जगह खजुराहो का प्रोग्राम बन गया . सो चल दिए खजुराहो .बड़ा नाम सुना था खजुराहो का .बहुत बड़ा और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का पर्यटक स्थल है .ऊपर से बुन्देल खंड में है .बुन्देल खंड में तो भैया हमने नौकरी की है . तीन साल रहे .खेती बाडी भी की .बड़े किस्से थे वहाँ के .श्रीमती जी ने सुन तो रखे थे पर उन्हें देखने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ था . सो हमने उनसे कहा कि चलो आज बुंदेलखंड भी देख लो , तुम भी क्या याद करोगी . तुम्हारा भी जीवन सफल हो जायेगा।
प्रोग्राम यूँ बना की रात में तीन बजे महोबा उतर के एक दम पहली ही बस पकड़ लेंगे ....... वहाँ से सिर्फ अस्सी किलोमीटर है सो दो घंटे में खजुराहो .9 बजे तक पहुँच जायेंगे . यूँ तो मुझे बुन्देल खंड की बस सर्विस का अंदाजा तो था पर हम सोच रहे थे की खजुराहो चूँकि बड़ा पर्यटक स्थल है सो बनारस से आने वाले पर्यटकों के मद्दे नज़र उस समय कोई न कोई कनेक्शन महोबा से ज़रूर होगा .ट्रेन ठीक टाइम से तीन बजे महोबा पहुँच गयी .स्टेशन से बाहर आये .पता लगा की खजुराहो के लिए पहली बस सुबह सात बजे . किसी तरह इधर उधर घूम फिर के 4 घंटे बिताये .लो जी .....7 बजे वाली बस नहीं आयी ......पता लगा की बरात ले के गयी है ....अब 9 बजे वाली जायेगी .किसी तरह 9 भी बजे . बस में सवारियां यूँ भरी थी मानो बोरे में आलू भरे हों ..........वहाँ से चली तो बाज़ार में जा के खड़ी हो गयी . उसकी छत पे सामान लोड होने लगा . आधा घंटे बाद वहाँ से चली .और रास्ते में पड़ने वाले हर छोटे बड़े गाँव कसबे नुक्कड़ पे सवारी उतारती चढ़ाती चली . मज़े की बात ये की रास्ते में पड़ने वाले हर गाँव पे पूरा सामान छत से उतारती और नया चढ़ाती ...हर जगह पंद्रह बीस मिनट का stoppage .......सड़क का हाल ये की उसकी चौडाई थी बमुश्किल दस फुट .......आगे चले तो बस पंक्चर हो गयी .उसमे भी आधा घंटा लगा .अब ऐसे में सवारियों का ये चरित्र गत गुण होता है की बस रुकी हो तो आम तौर पे लोग बाग़ नीचे उतर जाते हैं .पर साले बुन्देलखंडी टस से मस भी नहीं होते ..........खचा खच भरी बस आधे घंटे से खड़ी हो तो क्या हाल होता है ........धर्म पत्नी का धैर्य चुक रहा था और घुमक्कड़ी का भूत धीरे धीरे उतरने लगा था .
प्रोग्राम यूँ बना की रात में तीन बजे महोबा उतर के एक दम पहली ही बस पकड़ लेंगे ....... वहाँ से सिर्फ अस्सी किलोमीटर है सो दो घंटे में खजुराहो .9 बजे तक पहुँच जायेंगे . यूँ तो मुझे बुन्देल खंड की बस सर्विस का अंदाजा तो था पर हम सोच रहे थे की खजुराहो चूँकि बड़ा पर्यटक स्थल है सो बनारस से आने वाले पर्यटकों के मद्दे नज़र उस समय कोई न कोई कनेक्शन महोबा से ज़रूर होगा .ट्रेन ठीक टाइम से तीन बजे महोबा पहुँच गयी .स्टेशन से बाहर आये .पता लगा की खजुराहो के लिए पहली बस सुबह सात बजे . किसी तरह इधर उधर घूम फिर के 4 घंटे बिताये .लो जी .....7 बजे वाली बस नहीं आयी ......पता लगा की बरात ले के गयी है ....अब 9 बजे वाली जायेगी .किसी तरह 9 भी बजे . बस में सवारियां यूँ भरी थी मानो बोरे में आलू भरे हों ..........वहाँ से चली तो बाज़ार में जा के खड़ी हो गयी . उसकी छत पे सामान लोड होने लगा . आधा घंटे बाद वहाँ से चली .और रास्ते में पड़ने वाले हर छोटे बड़े गाँव कसबे नुक्कड़ पे सवारी उतारती चढ़ाती चली . मज़े की बात ये की रास्ते में पड़ने वाले हर गाँव पे पूरा सामान छत से उतारती और नया चढ़ाती ...हर जगह पंद्रह बीस मिनट का stoppage .......सड़क का हाल ये की उसकी चौडाई थी बमुश्किल दस फुट .......आगे चले तो बस पंक्चर हो गयी .उसमे भी आधा घंटा लगा .अब ऐसे में सवारियों का ये चरित्र गत गुण होता है की बस रुकी हो तो आम तौर पे लोग बाग़ नीचे उतर जाते हैं .पर साले बुन्देलखंडी टस से मस भी नहीं होते ..........खचा खच भरी बस आधे घंटे से खड़ी हो तो क्या हाल होता है ........धर्म पत्नी का धैर्य चुक रहा था और घुमक्कड़ी का भूत धीरे धीरे उतरने लगा था .
खैर किसी तरह वहाँ से आगे बढे तो एक कस्बा आया ..मेन रोड से कोई तीन किलो मीटर अन्दर था .पता चला की बस पहले अन्दर जायेगी फिर वहाँ से सवारिया लाद के चालीस मिनट बाद यहीं वापस आएगी .और हम दोनों वहीं उतर गए , कंडक्टर से कह दिया की बैग छत पे रखे है , ध्यान रखना . उतरे , खाया पीया .....घूमे फिरे .......घंटा बीत गया , बस नहीं आयी .दो घंटे बीत गए तो हमारे होश गुम ......कमबख्त गयी तो गयी कहाँ ....किसी दूसरे रास्ते से तो नहीं चली गयी .पता लगा की कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं .किसी तरह एक जीप में लटक के बस अड्डे पहुंचे .........वहाँ उस सुनसान अड्डे पे वो बस पूरी शान ओ शौकत से खड़ी थी ..खाली ....सवारियाँ और स्टाफ नदारद ....... सामान छत से गायब था ......नज़र दौडाई तो एक कोने में लोग बाग़ बैठे थे ......निर्विकार भाव से .....शांत ......मानो गौतम बुद्ध ध्यान मग्न बैठे हों . बहुत खोजने पे क्लीनर दिखा ........ अबे सामान कहाँ है .....बस क्यों नहीं आयी .....मैंने एक RTI activist की तरह से सवालों के झड़ी लगा दी ........... वो भी मनमोहन सिंह की माफिक शांत बना रहा .....सामान एक कमरे में रखा था ...... बस आगे क्यों नहीं गयी इस प्रश्न का उत्तर इतना जटिल था की मुझे आज तक समझ ना आया ...........खजुराहो अब भी तीस किलोमीटर दूर था ......दो बज रहे थे ......अगली बस की कोई आस न थी ........सो हम दोनों ने सच्चे योद्धा की तरह बैग पीठ पे लादे और पैदल ही चल दिए .......यूँ ही किसी से लिफ्ट ले के मेन रोड पे आये ......कोई आधे घंटे बाद एक ट्रक दिखा ......उसने पंद्रह किलोमीटर पहुंचाया .......मंजिल अब भी पंद्रह किलोमीटर दूर थी ....वहाँ से एक जीप मिली .......उस से कुछ दूर और गए .......फिर एक और टेम्पो मिला , उसने खजुराहो पहुंचाया ...... पांच बज रहे थे ......भूख और थकावट के मारे बुरा हाल था ......होटल लिया और नहाए धोये ..........छोटा सा होटल था ....साफ़ सुथरा ....नीचे एक भजिया वाला गरम गरम पकोड़े उतार रहा था .......किस्म किस्म के .......शानदार स्वादिष्ट गर्मा गर्म पकोड़े और चाय ........पेट भर पकोड़े खाए .......पकोड़े जिन्हें मध्य प्रदेश में भजिया कहा जाता यूँ भी MP की ख़ास चीज़ है .बेसन से नहीं बनाते , दाल भिगा के, पीस के बनाते हैं .......एकदम unique ......पकोड़े खाते उस दुष्कर यात्रा की सारी थकावट और खीज उतर गयी .......शाम को टहलने निकले .....बगल में ही वो कॉम्लेक्स था जहां खजुराहो के वो विश्व प्रसिद्ध मंदिर खड़े थे ..........उन मंदिरों में सबसे पहले निगाहें कामसूत्र की उन मूर्तियों को ढूंढती है .....जो नदारद थी .......वहाँ खड़े एक गाइड नुमा बन्दे ने बताया ....देखो ये रही वो कलाकृति .......विशालकाय मंदिर में बाहरी दीवारों में उकेरी गयी , बमुश्किल चार इंच की छोटी छोटी ....... उन मंदिरों में ऐसी हज़ारों रही होंगी पर अपना कोई इंटरेस्ट जम नहीं रहा था सो अपन यूँ ही घूम फिर के आ गए ......छोटा सा बाज़ार था .....खजुराहो आज भी असल में एक छोटा सा गाँव है जहां बमुश्किल हज़ार आदमी रहते होंगे .......दूर तक फैले खुले मैदानों में विदेशी सैलानियों के लिए तकरीबन हर बड़े ग्रुप के बड़े होटल हैं , हवाई अड्डा है और सुनते है की रोजाना सात आठ फ्लाइट्स उतरती है .........कमबख्त हंसी आती है ...साली बस एक भी कायदे की नहीं आती ...........
कुछ मंदिर दूर थे . सुबह उन्हें देखने गए .वहाँ बगल में बस्ती थी ......नालियां बजबजा रही थी ......एक सूअर भी कीचड में सना हमारे साथ मंदिर तक हमें कंपनी देता चला आया ........ज़रूर इसमें भी कोई अध्यात्म का राज़ छिपा होगा ........अगले दिन वापस चलने की बारी आयी तो धर्मपत्नी साफ़ नट गयी .......बोली यहीं रह लेते हैं ........कम से कम उस रूट से तो वापस नहीं जायेंगे . एक वैकल्पिक रूट भी था . खजुराहो से सतना होते हुआ वापस बनारस .उस से चलना तय हुआ . पता लगाया .....खजुराहो सतना बस चार घंटे बाद थी ......खजुराहो झांसी सतना रोड से कोई दस किलोमीटर अन्दर पड़ता है .........तय ये हुआ की मेन रोड पे चला जाए और वहाँ से कोई साधन try किया जाए . वहाँ आये .....कुछ नहीं था ......पता लगा दो घंटे बाद झांसी सतना आएगी .......मुझे पता था ऊपर तक लदी फदी आयेगी .......दो घंटा वहीं सड़क पे खड़े ट्रक टेम्पो ताकते रहे ....साला कोई ट्रक तक न मिला ........ फिर वही आयी ....झांसी सतना ...उसी में लटक सटक के चार घंटे में सतना पहुंचे .9 बजे महानगरी थी , बनारस के लिए .
वहाँ सतना स्टेशन पे एक नंबर प्लेटफार्म पे हम दोनों थके मांदे ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे . वहा वो दिखी ........उम्र रही होगी यही कोई चालीस पैंतालिस साल ........भीख मांगती रही होगी . कोई रोग रहा होगा . चला नहीं जाता था उस से . बैठे बैठे ही रेंग कर चलती थी ......... एक बार में बमुश्किल एक इंच सरकती होगी . हम दोनों का ध्यान बरबस ही उसकी तरफ चला गया .सरकती रेंगती वो हमारे सामने से निकल गयी . हम दोनों उसे देर तक देखते रहे .फिर बातों में मशगूल हो गए . कुछ देर बाद मुझे फिर ध्यान आया .मैं देखना चाहता था की कहाँ तक पहुँची वो . पर कहीं दिखाई न दी ......मैंने उठ के ढूँढने की कोशिश की ...कहीं नहीं दिखी .मैं बैठ गया . पर मेरी जिज्ञासा शांत न हुई . धर्म पत्नी को सामान के पास छोड़ के मैं उसे ढूँढने निकल पड़ा .वहाँ दूर प्लेटफार्म के आखिरी छोर पे सरकती रेंगती वो अब भी चली जा रही थी . देर तक वहीं खडा उसे तकता रहा .....ट्रेन आ गयी ........खजुराहो की उस नीरस , बोझिल और थकाऊ यात्रा में वो रेंगती हुई भिखारिन अब भी याद आती है . motivational speaker के रूप में स्टूडेंट्स को लेक्चर देते अब भी मैं अक्सर उसका ज़िक्र करता हूँ ..........न चल पाओ तो बैठ के रेंगते रहो .....रेंगते हुए भी मंजिल तक पहुंचा जा सकता है.
ये घटना बारह साल पुरानी है .सुनते हैं की पिछले दस सालों में शिवराज सिंह के नेतृत्व में MP का काफी विकास हुआ है . शानदार सडकें बन गयी हैं .महोबा से एक रेल लाइन खजुराहो तक बन गयी है . बनारस से बुंदेलखंड एक्सप्रेस में कुछ डब्बे महोबा से कट के खजुराहो तक जाते हैं . दिल्ली से भी अब खजुराहो तक सीधी ट्रेन हैं . अलबत्ता महोबा से बस सर्विस सुधरी की नहीं इसका कोई अंदाजा नहीं .........वैसे खजुराहो मस्त जगह है .....छोटी सी ...साफ़ सुथरी ...शांत ....खूबसूरत .
कुछ मंदिर दूर थे . सुबह उन्हें देखने गए .वहाँ बगल में बस्ती थी ......नालियां बजबजा रही थी ......एक सूअर भी कीचड में सना हमारे साथ मंदिर तक हमें कंपनी देता चला आया ........ज़रूर इसमें भी कोई अध्यात्म का राज़ छिपा होगा ........अगले दिन वापस चलने की बारी आयी तो धर्मपत्नी साफ़ नट गयी .......बोली यहीं रह लेते हैं ........कम से कम उस रूट से तो वापस नहीं जायेंगे . एक वैकल्पिक रूट भी था . खजुराहो से सतना होते हुआ वापस बनारस .उस से चलना तय हुआ . पता लगाया .....खजुराहो सतना बस चार घंटे बाद थी ......खजुराहो झांसी सतना रोड से कोई दस किलोमीटर अन्दर पड़ता है .........तय ये हुआ की मेन रोड पे चला जाए और वहाँ से कोई साधन try किया जाए . वहाँ आये .....कुछ नहीं था ......पता लगा दो घंटे बाद झांसी सतना आएगी .......मुझे पता था ऊपर तक लदी फदी आयेगी .......दो घंटा वहीं सड़क पे खड़े ट्रक टेम्पो ताकते रहे ....साला कोई ट्रक तक न मिला ........ फिर वही आयी ....झांसी सतना ...उसी में लटक सटक के चार घंटे में सतना पहुंचे .9 बजे महानगरी थी , बनारस के लिए .
वहाँ सतना स्टेशन पे एक नंबर प्लेटफार्म पे हम दोनों थके मांदे ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे . वहा वो दिखी ........उम्र रही होगी यही कोई चालीस पैंतालिस साल ........भीख मांगती रही होगी . कोई रोग रहा होगा . चला नहीं जाता था उस से . बैठे बैठे ही रेंग कर चलती थी ......... एक बार में बमुश्किल एक इंच सरकती होगी . हम दोनों का ध्यान बरबस ही उसकी तरफ चला गया .सरकती रेंगती वो हमारे सामने से निकल गयी . हम दोनों उसे देर तक देखते रहे .फिर बातों में मशगूल हो गए . कुछ देर बाद मुझे फिर ध्यान आया .मैं देखना चाहता था की कहाँ तक पहुँची वो . पर कहीं दिखाई न दी ......मैंने उठ के ढूँढने की कोशिश की ...कहीं नहीं दिखी .मैं बैठ गया . पर मेरी जिज्ञासा शांत न हुई . धर्म पत्नी को सामान के पास छोड़ के मैं उसे ढूँढने निकल पड़ा .वहाँ दूर प्लेटफार्म के आखिरी छोर पे सरकती रेंगती वो अब भी चली जा रही थी . देर तक वहीं खडा उसे तकता रहा .....ट्रेन आ गयी ........खजुराहो की उस नीरस , बोझिल और थकाऊ यात्रा में वो रेंगती हुई भिखारिन अब भी याद आती है . motivational speaker के रूप में स्टूडेंट्स को लेक्चर देते अब भी मैं अक्सर उसका ज़िक्र करता हूँ ..........न चल पाओ तो बैठ के रेंगते रहो .....रेंगते हुए भी मंजिल तक पहुंचा जा सकता है.
ये घटना बारह साल पुरानी है .सुनते हैं की पिछले दस सालों में शिवराज सिंह के नेतृत्व में MP का काफी विकास हुआ है . शानदार सडकें बन गयी हैं .महोबा से एक रेल लाइन खजुराहो तक बन गयी है . बनारस से बुंदेलखंड एक्सप्रेस में कुछ डब्बे महोबा से कट के खजुराहो तक जाते हैं . दिल्ली से भी अब खजुराहो तक सीधी ट्रेन हैं . अलबत्ता महोबा से बस सर्विस सुधरी की नहीं इसका कोई अंदाजा नहीं .........वैसे खजुराहो मस्त जगह है .....छोटी सी ...साफ़ सुथरी ...शांत ....खूबसूरत .
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