Monday, July 25, 2011

इश्क कि दास्ताँ है प्यारे ....ज़रा प्यार से पढना ...दास्ताने कलकत्ता .....

पिछले दिनों सरकार ने चवन्नी बंद कर दी.जब ये खबर मैंने अखबार में पढ़ी तो मुझे दुःख हुआ ,,,,,चवन्नी के लिए नहीं ...कलकत्त्ते वालों के लिए ....अरे नामुरादों ये सब करने से पहले कम से कम कलकत्ते वालों से तो पूछ लिया होता ........ अब दिल्ली में बैठे ये सरकारी बाबू क्या जानें कि भारत में अब भी एक जगह है जहाँ चवन्नी चलती है भैया ...और धड़ल्ले से चलती है ....और मुझे लगता है कि अगर बंद न होती तो अभी सालों चलती ........लीजिये सुनिए किस्सा -ए- कलकत्ता और आप ही बताइये ........हमारे एक भाई रहते हैं कलकत्ते में ...उनके साथ मैं एक दिन पास के बाज़ार चला गया .....वहां सब्जी और रोज़मर्रा का सामान बिकता है ....वहां मैंने एक दुकान देखी ........उस ज़माने में जब PCO चला करते थे तो छोटा सा एक केबिन होता था जिसमे घुस के लोग बतियाते थे ..........बस उतनी बड़ी दुकान थी .....और मज़े की बात कि चारों तरफ से बंद थी ........उसमें न जाने कहाँ से घुस के वो दुकानदार बैठा था ......और एक छोटी सी window थी ......उसमें से गर्दन घुसा के ग्राहक सामान मांगते थे .......एक लड़की आयी और उसने अपनी लिस्ट सुना दी ....10 पैसे की हल्दी ....25 पैसे का मसाला ......5 पैसे का नमक ......15 पैसे की लाल मिर्च .....10 पैसे का जीरा ........3 रु की अरहर की दाल ...1 रु का तेल ........और बस यूँ ही कुछ और items ......( ये बात 2004 की है )......दुकान दार बड़े मनोयोग से छोटी छोटी पुडिया बाँधने लगा .........अब मैं गया था दिल्ली से ....मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था .......वाकई हिन्दुस्तान में दो हिन्दुस्तान बसते हैं ...ये मैंने उस दिन देखा ........एक जो सचमुच 5 -10 रु रोज़ में गुजारा कर लेता है और दूसरा जो 100 का नोट तो बस यूँ ही उड़ा देता है ........उस दिन से मैंने बंगाल को और बंगाली संस्कृति को बड़े गौर से देखना शुरू किया ........उन दिनों तक भी कलकते में लोग 1000 रु की नौकरी करते थे ....कैसे गुज़ारा कर लेते थे ...........इसका बस एक ही जवाब है .......तिनके तिनके की सम्हाल ....उसका सदुपयोग और संरक्षण ........अब एक उदाहरण लीजिये .........आपके घर में नई कुर्सी आयी ...वो फोल्डिंग वाली ....lawn chair कहते हैं जिसे .........अब उसके पैरों में और उसके हत्थे पर एक polythene लिपटा होता है ....वो polythene कितने दिन चलेगा ......तो मेरे एक दोस्त बोले ..अरे उसे तो हम नोच के पहले दिन ही फेंक देंगे फिर कुर्सी घर में लायेंगे ..............एक दूसरे दोस्त बोले ...चलो हो सकता है दो चार दिन चल जाए ..........पर भैया बंगाल में कुर्सी पर लिपटा वो polythene 25 साल चलेगा ..........इसका मतलब कुर्सी भी तो 25 साल ही चलेगी .........इतना सम्हाल के रखते है बंगाली अपनी हर चीज़ को ...........और बंगाल ने इसे एक संस्कृति के रूप में अपनाया है ............शुरू में मैं इसके लिए उनका मज़ाक उड़ाया करता था ..........आज मैं कायल हूँ उनके इस गुण का .......धरती माँ पेट तो सबका भर सकती है ...पर सबकी विलासिता पूरी करने का सामर्थ्य नहीं है उसमें .....पश्चिमी जगत भोग विलास की पराकाष्ठा में डूब कर संसाधनों का अंधा धुंध दोहन कर रहा है ,,,,बंगाल ने चिर काल से मितव्ययिता का पालन किया है .........
मेरे एक मित्र है ...पंजाबी है ...कलकत्ते में व्यापार करते हैं ...शौक़ीन आदमी हैं ...वो एक किस्सा सुनाने लगे ..........किसी ऑफिस में कुछ लोगों को 2000 रु का bonus दे दो ........तो वो लोग क्या करेंगे ........सो UP बिहार वाले की बीवी तो अपनी 6 साल की बेटी की शादी( जो अभी 10 साल बाद होनी है ) के लिए कोई गहना बनवा लेगी या 10 साड़ियाँ खरीद के रख देगी ...........पंजाबी पट्ठा arrow की दो शर्ट खरीद लेगा ............पर अपने बंगाली बाबू सीधे स्टेशन जायेंगे और कालका मेल से शिमला की दो टिकट बुक करायेंगे ....एक झोले में दो जोड़ी कपडा ...पानी की एक बोतल और एक बोरा मूढ़ी ....(चावल की जो लाइ होती है....puffed rice )...और चल पड़े घूमने .........इस धरती पे अगर घूमने का कोई सबसे ज्यादा शौक़ीन प्राणी है वो अपने ( नीरज जाट जी के बाद ) बंगाली बाबू ही होते हैं ..........tourism बंगालियों की नस नस में हैं ...........वो अलग बात है की टूरिस्ट प्लेस वाले सब दुकान दार इन्हें गरियाते हैं .........भला ऐसा क्यों .......इसका भी एक किस्सा है .........हम दोनों मियां बीवी मसूरी गए हुए थे .......निपट off season था ...खाली पड़ी थी मसूरी .........सो एक दुकानदार से यूँ ही गप्पें मारने लगे ....वो बताने लगा की बस कुछ दिनों में बंगाली season शुरू हो जाएगा .......वो क्या .....दुर्गा पूजा पे बंगाली घूमने निकल पड़ेगा ....हमने कहा की चलो आपके लिए तो अच्छा ही है ...वो बोला अरे क्या ख़ाक अच्छा है ...सारा दिन भीड़ भाड़ रहेगी .........चिल्ल पों मची रहेगी ......बिक्री बट्टा एक पैसे का नहीं होगा .........वो क्यों भैया .,......अरे भैया .......बंगाली एक धेला भी खर्च नहीं करता ........जी हाँ ....बंगाली बहुत सस्ते में टूर निपटा देता है .........हर टूरिस्ट प्लेस पर बंगालियों के स्पेशल होटल होते हैं जहाँ आज भी 50 -60 रु में रूम मिलते हैं .........और 10 -20 रु में भर पेट भोजन ...बाकी नाश्ते के लिए एक बोरा लाइ ले के चलते हैं ...........सारा दिन में एक आध कप चाय पी तो पी नहीं वो भी टाल गए ( नीरज जाट जी आप उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं )...........पर घूमने जायेंगे साल में 4 -6 बार .........बंगाल का अदना सा आदमी भी ....जो 1000 की नौकरी करता है साल में एक बार घूम आता है .........सो वो दुकान दार बताने लगा ...सबसे अच्छा टूरिस्ट गुजराती ..और सबसे घटिया ...बंगाली ............शहर भर के बंगाली जितनी बिक्री करायेंगे ....उस से ज्यादा एक गुजरातन करा देगी .......तो मैंने उस से डरते डरते पूछा ..और ये अपने UP बिहार वाले ......वो बोला , इनका कोई चक्कर नहीं ....ये घूमने आते ही नहीं ...... साल में एक बार खिचड़ी पे गंगा नहा आये ...हो गया tourism ........सो मैंने अपनी बीवी को समझाता हूँ .........देखो बंगालियों से कुछ सीखो ....ये क्या फ़ालतू की शौपिंग ....वो भी टूरिस्ट प्लेस पर .........1 के 4 रु वो भी घटिया सामान के ........घूमो फिरो खाओ पियो ...मस्त रहो ..........नो शौपिंग .......
कलकत्ते की एक गली में एक छोटी सी दर्जी की दुकान पर मैं चला गया किसी काम से ...अँधेरा हो चुका था , बत्ती गुल थी ...और श्रीमान जी torch जला के कुछ पढ़ रहे थे ....एक दम तन्मय भाव से ...मेरी उपस्थिति का कोई अहसास नहीं था उन्हें ........मुझे भी कौतूहल हुआ ..ऐसा क्या है है भाई ....देखा तो मोटी सी एक किताब थी...... बांगला में ......मैंने पूछा क्या है दादा .........उपन्यास है ....किसका ...कौन सा ......पता लगा की शरत चन्द्र का समग्र था ...........साहित्य पढने के बेहद शौक़ीन होते हैं बंगाली .........इश्क है उन्हें शरत ,बंकिम ,टैगोर,विभूति भूषण ,और तारा शंकर बंदोपाध्याय,माइकल मधुसूदन दत्त और नजरुल इस्लाम से .............उनके घरों में अच्छी खासी library मिल जायेगी आपको ........और किताबों की देखभाल .....वाह क्या बात ........किताबों की जो इज्ज़त बंगाली करते हैं कोई नहीं करता ....किसी बंगाली की कोई किताब आपको जीर्ण शीर्ण हालत में नहीं मिलेगी ...और क्या मजाल की कोई किताब गुम हो जाए ...या वो आपको समय से ना लौटाएं ..........जान बसती है बंगालियों की .....किताबों में .........एक बहुत ही घटिया और गंदे आदमी और घटिया लेखक ( खुशवंत सिंह ) ने कहा है कि किसी शहर का बौद्धिक स्तर अगर जानना है तो उस शहर कि book shops से पता चल जाता है .........कलकती पे ये बात बखूबी बैठती है ...वैसे इस पैमाने पर तो मैं लखनऊ को कलकत्ते से भी ज्यादा नंबर दूंगा ........कलकत्ता बुद्धिजीवियों का शहर है......... जैसे मैं कई बार मज़ाक में कहता हूँ कि हमारे पंजाब में लुधिआना और जालंधर बैलों के शहर हैं .......कलकत्ते और लखनऊ कि हर तीसरी दुकान किताब की होती है और पंजाब की हर तीसरी दुकान दारु की होती है ...........ठेका अंग्रेजी अते देस्सी .......पढ़े लिखे लोग बताते है कि देश में कुछ राजधानियां हैं और कुछ संस्कार धानियां है .........कौन सी हैं संस्कार धानियां ????? वो हैं बनारस .....पूना .......कलकत्ता ....जबलपुर ........अब जबलपुर और पूना के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं जानता पर बनारस और कलकत्ता ...वाह ...सचमुच ...संस्कार धानियाँ हैं देश की ......आज भी जो साहित्य और ललित कलाओं का सृजन यहाँ होता है ........कलाओं के पनपने के लिए जो माहौल यहाँ मिलता है ...यहाँ की मिटटी से ...यहाँ की हवाओं से ...कला की खुशबू आती है ....कलकत्ते में आज भी कमाल का साहित्य लिखा और पढ़ा जाता है .....आज भी बेहतरीन फिल्में बनती हैं .....नृत्य, संगीत ( रबिन्द्र संगीत ,भारतीय शाश्त्रीय संगीत ,बऊल ) ,fine arts .....ड्रामा ...सबका केंद्र है कलकत्ता ......
पर बंगालियों की फ़ुटबाल के प्रति दीवानगी की अगर चर्चा न की तो उनका चरित्र चित्रण अधूरा रह जाएगा .........पर ये अगले अंक में तब तक इंतज़ार कीजिये ..........

7 comments:

  1. क्या बात है भाई वाह ... बहुत बारीक विश्लेषण किया है आपने कलकत्ते का और वहाँ के लोगो का ... वैसे हाँ एक बोरा मुड़ी ले कर घुमने जाने वाली बात कुछ हजम नहीं हुयी ... अगली किस्त का इंतज़ार रहेगा ... एक विनती है ... इस सिलसिले को जहाँ तक संभव हो चलने दें ... बहुत आनंद आ रहा है !!

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  2. मैं भी बंगालियों की घुमक्कडी का कायल हूं लेकिन उनकी तरह अपने खाने का सामान ले जाना अपने बस की बात नहीं है क्योंकि मैं सोचता हूं कि दोचार रुपये खर्च हो जायें लेकिन झोले में वजन कम से कम रखना है।
    गढवाल के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में लोकल आदमी बंगालियों को देखते ही बडा खुश होता है और दूर से देखते ही पहचान लेता है कि वो बंगाली है क्योंकि वे बंगालियों के गाइड बनना पसन्द करते हैं। ये सब मैंने खुद देखा भी है।
    कोई इंसान अपनी मितव्ययिता की वजह से घुमक्कड नहीं बनता बल्कि उसका जज्बा उसे घुमक्कड बनाता है और बंगालियों में जज्बा जबरदस्त होता है।

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  3. बेहद रोचक... आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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