Thursday, September 5, 2013

मोनिका मैडम अब पढ़ाती नहीं हैं .........5 September .....Teachers day

                                            आज शिक्षक दिवस पे बरबस याद हो आये वो दिन , आज से कोई 23 साल पहले जब मैं अपनी नयी नवेली पत्नी  और दो महीने के लड़के को गोदी में उठाये। ……. दिल्ली की  तीन महीने पुरानी  केंद्र सरकार की नौकरी को लात मार के …अपने गाँव  माह्पुर , जिला गाजीपुर चला आया था ……. और अपने घर के ही चार कमरों में एक स्कूल खोल दिया था …………कमरे छोटे थे , हवादार भी न थे , बाहर एक बड़ा सा मैदान था। …कुछ पेड़ थे …तीन चार छप्पर डाल  दिए थे , बड़े बड़े।  न कोई   मान्यता , न कोई ट्रेंड टीचर .न कोई लाल फीता शाही . किसी का कोई दबाव न था न कोई जवाब देही थी .......सिर्फ एक ही जूनून था ........जो आ गया उसे पढाओ .......
                                           मुझे याद है उन दिनों वो जिला गाजीपुर में ग्रामीण क्षेत्र का पहला अंग्रेज़ी मध्यम स्कूल था .....वैसे सही अर्थों में यूँ कहें तो सालों बाद एक सचमुच का स्कूल खुला था ........दूर दूर से बच्चे चले आते थे .....10  -10  साल के बच्चे पहली क्लास में नाम लिखाने चले आते थे ........पहले दो महीने तो बस एडमीशन ही चलता रहा ......फिर जब नज़र दौडाई तो देखा की बच्चे तो आ गए , पर अब पढाये कैसे .....खैर जो सबसे बड़े वाले थे उनकी एक क्लास बना के उन्हें NCERT  की  पहली क्लास की बुक पढ़ानी शुरू की .....किताबें आसानी से मिलती न थीं ......बनारस से सर पे लाद के लाते थे .....खैर पढ़ाना शुरू किया ....दो महीने में बच्चों ने वो पहली क्लास की किताब पढ़ डाली ......तो दूसरी की शुरू करा दी .........4 -6  महीने में तीसरी वाली  ....इस तरह एक साल में NCERT की तीन क्लास पढ़ा दी ........अगले साल और दो .....तीसरे साल वो बच्चे 6th  में पहुँच गए तो फिर उनकी रेगुलर क्लास चल पडी ........परिवार के ही सब लोग मिल जुल के पढ़ाते थे ........जब बच्चे बढे तो कुछ स्थानीय टीचर्स भी रखे ........फिर सिलसिला चल पडा .........और दो तीन सालों में वो इलाके का नामी स्कूल हो गया .......
                                  समय के साथ उसमे सरकारी खाना पूर्ती और बाज़ार के दबाव आने लगे ..........समय के साथ वो  स्कूल अपना स्वरुप , नाम , चरित्र , चलन बदलता रहा .......पहले पेड़ के नीचे और छप्पर में चलता था .....अब बहुत बड़ी बिल्डिंग में चलता है ......पहले आज़ाद था अब सरकारी फाइलों में जकड़ा हुआ है ....एक लाल फीते से बंधा हुआ है ........
                                 धीरे धीरे वो जज्बा ख़तम हो गया और स्कूल हमारा एक दूकान या यूँ कहें शोरूम बन गया .........मिशन ख़तम हो गया ....सिर्फ कमीशन रह गया .........फिर हमने वो सब त्याग के पंजाब की राह पकड़ ली .....समय के साथ सब पीछे छूट गया ........ इतने सालों बाद फेस बुक पे कुछ पुराने स्टूडेंट्स ने ढूंढ निकाला .........यूँ भी जब गाँव जाते हैं तो अक्सर कुछ बच्चे और उनके अभिभावक मिल ही जाते हैं ........उस स्कूल का जो पहला स्टूडेंट था .....आशुतोष  सिंह .....5  साल का रहा होगा .....उसकी माँ एक अस्पताल में नर्स थी ....पिता फ़ौज में थे .....माँ चिलचिलाती धूप में ....जून के महीने में दस किलोमीटर दूर से सैदपुर से आयी  हमारे गाँव .........नाम लिखाने ....मैंने पूछा आयेगा कैसे .......बस आ जाएगा , जैसे भी ........वो लड़का आठ साल पढ़ा हमारे यहाँ ....फिर एक बड़े स्कूल में बनारस चला गया .......आज आर्मी में मेजर है .....मेजर आशुतोष सिंह .....अच्छा लगता है सुन के ..........एक और पुराना स्टूडेंट  मिला .....उसने बताया की प्रीती तिवारी ऑस्ट्रेलिया में है CITIBANK में .......एक और होता था विनय .....वो कही बंगलौर में है ....बीस लाख का पैकेज बताते हैं उसका ..........और ऐसे सैकड़ों है .......पहले 4 -5  सालों के ........बाद के सब कहाँ है पता नहीं  .........
                                  उन दिनों पेड़ के नीचे , जमीन पे टाट बिछा के बैठते थे बच्चे .........अब शानदार भवन  में कुर्सी टेबल पे बैठते हैं ........सुना है किसी ज़माने में सैदपुर कसबे के टाउन नेशनल स्कूल में एक हिंदी टीचर हुआ करते थे .....हर्षु प्रसाद सिंह .....उन्होंने  बारहवीं क्लास को साल भर में ( प्रतिदिन क्लास ले कर ) पहले चैप्टर का सिर्फ दो पैराग्राफ पढ़ाया था . सुनते हैं की जिसने उनसे वो दो पैराग्राफ पढ़ लिया वो हिंदी का प्रकांड विद्वान् बन गया ..........आज हरशु प्रसाद किसी स्कूल में मास्टर होते तो स्कूल से निकाल दिए जाते ....सिलेबस पूरा न करने के जुर्म में .........
                    इन दिनों मेरी पत्नी पंजाब के एक बहुत बड़े और महंगे स्कूल की प्रिंसिपल है .......स्कूल पंजाब बोर्ड से मान्यता प्राप्त है ....सीबीएसई की मान्यता की प्रक्रिया चल रही है .........127  किस्म की फाइल्स और रजिस्टर बनाने और मेन्टेन करने पड़ते हैं , आजकल एक स्कूल में ........शिक्षा विभाग हर फाइल और रजिस्टर को चेक करता है .....प्रिंसिपल साहिबा सिर्फ फाइलों में उलझी रहती हैं ..........मोनिका मैडम अब पढ़ाती नहीं हैं .........
                      आज शिक्षक दिवस पे गुजरे ज़माने के उन सभी टीचर्स को श्रद्धांजली ......जो पढ़ाने में इतना मशगूल हो जाते थे की सिलेबस बेचारा छूट जाता था ........


1 comment:

  1. सच में.. बहुत अपनी सी पोस्ट लगी... मेरे माँ-पापा दोनों उस ज़माने में शिक्षक थे जब उनका काम केवल पढ़ाना ही था.. लेकिन सेवानिवृत होते-होते घरों में अंट-शंट कागजों का ढेर लगा रहता था... ये गणना, वो गणना... मिड डे मील, फल्ला धिकाना.. न जाने क्या-क्या... अब तो शिक्षकों को दिन भर का कार्यकलाप भी डायरी में मेंटेन करना पड़ता है... उसके लिए उन्हें अलग से आधे घंटे दिए जाते हैं... शिक्षकों के काम में से पढ़ाना कब विलुप्त हो गया पता ही नहीं चला...

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