किसी ज़माने में मशहूर शायर और फिल्मकार गुलज़ार साहब ने एक सीरियल बनाया था
........मिर्ज़ा ग़ालिब .......उसमे दिखाया था की मिर्ज़ा कलकत्ते जाते हुए
बनारस में रुके ....और बनारस उन्हें इतना भाया की वहां 6 महीने रुके रहे
जबकि उन्हें कलकत्ते पहुँचने की बड़ी जल्दी थी ............जब चलने लगे तो
आह भर कर बोले की अगर ज़माने की मजबूरियां न होती तो बनारस में ही रह जाते
.....फिर जाते जाते एक बात और कह गए .....ऐ खुदा .....बनारस को बुरी नज़र
से बचाए रखना ...........खैर ये तो बड़ी पुरानी बात हो गयी ........फिर
एक बार मेरा एक बड़ा पक्का यार जो की basketball का
coach है , एक टूर्नामेंट में बनारस आया ....मैं उससे मिलने गया ....सारी
बातों के बाद पता चला की जनाब बड़े खफा हैं ....मैंने पूछा अबे हुआ क्या
......वो बोला ........गंदे घटिया लोग और गन्दा घटिया शहर .......फिर
मैंने वो मिर्ज़ा ग़ालिब की बात बतायी .............तो वो बोला की ज़रूर
मिर्ज़ा को गंदगी बड़ी पसंद होगी.......... मैंने कहा ,चलो माना की शहर
गन्दा है पर लोगों ने क्या कर दिया ...वो क्यों गंदे और घटिया हो
गए ........फिर जो उसने किस्सा सुनाया वो यूँ था की BHU में जो बास्केटबाल
का टूर्नामेंट चल रहा था उसमे ये लोग officiating कर रहे थे ...और वहां
कुछ लड़के जो मैच देख रहे थे वो बीच बीच में रेफ़री को गरिया रहे थे ...सो
रेफ़री साहब ने आयोजकों से शिकायत की की इन्हें रोको .....तो आयोजक बोले
....अरे साहब इन्हें अपना काम करने दीजिये और आप अपना काम करिए ........अरे
साहब कमाल करते हैं आप ....हम क्या यहाँ गालियाँ सुनने आये हैं ......अजी
नहीं साहब ये गालियाँ नहीं .....ये तो शिव जी का प्रसाद है ......तो आप
यूँ कीजिये ...आप ही ये प्रसाद बोरे में भर के ले जाइए ...हमें नहीं
चाहिए ........और रेफ़री साहब ने मैच रोक दिया ....फिर उसके बाद गा गा
के ......और भिगो भिगो के जो गालियाँ वहां गाई गयीं और किस तरह वो
टूर्नामेंट ख़तम हुआ वो भी एक किस्स्सा ही है ...........तो ये किस्सा
सुन के मैं बड़े जोर से हंसा और बोला ....तुम नहीं समझोगे बेटा
....शहरे बनारस की ये गालियाँ वाकई शिव जी का प्रसाद है .........ले
जाओ ........
अब आपको भी ये पढ़ के अजीब सा ही लगेगा ....जी हाँ बनारस में गालियाँ गाई जाती है , ख़ास मौकों पर .....ख़ुशी के मौकों पर ...ठेठ बनारसी अंदाज़ में एन्जॉय करने के लिए........ बड़ा निराला शहर है ....बनारस ........मुझे इश्क है बनारस से ....बनारस है ही इश्क करने लायक .......ऐ खुदा बनारस को बुरी नज़र से बचाए रखना .......कुछ शहर होते हैं ....कुछ राजधानियां होती हैं ....पर कुछ संस्कारधानियां होती हैं .......कहते हैं की हिन्दुस्तान में जो संस्कार धानियां थीं या हैं वो हैं बनारस , कलकत्ता , पूना ,और जबलपुर ...........सुनते हैं एक और हुआ करती थी संस्कारधानी .....पर शायद उसके लिए किसी ने दुआ न की और उसे बुरी नज़र लग गयी ....लाहौर ........
कहाँ से शुरू करूँ , दास्ताने इश्क ए बनारस .....या काशी ...........लोग कहते हैं की दुनिया का सबसे पुराना शहर है .......शिव की नगरी है ...गंगा जी की नगरी है .......काशी ........मंदिरों का शहर है ....बताते हैं की पचास हज़ार से ज्यादा मंदिर हैं छोटे बड़े ......इतने सारे मंदिर ?????? दरअसल काशी की पुरानी परंपरा रही है .........जब भी कोई घर बनाता था , उस ज़माने में ......तो घर के बाहरी हिस्से में सामर्थ्य के अनुसार छोटा या बड़ा ...... मंदिर ज़रूर बनवाता था ...जैसे आजकल लोग अपने घरों में पूजा का एक कमरा बनवा लेते हैं .......आज भी वो मंदिर यूँ ही खड़े हैं बनारस के हर कोने में ..........सो मंदिरों का शहर है बनारस ........कुछ लोग भूतों का शहर भी कहते हैं .....city of ghosts ....वो यूँ की हज़ारों सालों से भारत में मान्यता रही है की काशी में मरने वाले सीधे स्वर्ग जाते हैं ........सो लोग अपने अंतिम दिन बनारस में बिताते हैं ....आज भी हज़ारों लोग मरने के लिए बनारस आते हैं .....(ख़ुदकुशी करने नहीं ) वो चाहते हैं की अंतिम सांस काशी में निकले ..........और जो यहाँ मर न सके ...उनकी इच्छा होती है की की अंतिम संस्कार ही काशी में हो जाए गंगा किनारे .........सैकड़ों संस्कार होते हैं आज भी यहाँ मणिकर्णिका घाट पे और हरिश्चंद्र घाट पे ....वहां जहाँ कहते हैं की राजा हरिश्चंद्र के ज़माने से आज तक कभी आग न बुझी ....लाखों साल हो गए .........
खिचे चले आते हैं लोग ...सिर्फ मरने वाले ही नहीं .......जीने वाले भी ........अलमस्त जिंदगी जीने वाले भी ........सबकी अपनी अपनी वजहें है ..........tourists के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है बनारस ..........हर किस्म के टूरिस्ट के लिए ........देसी हो चाहे विदेशी ......तीर्थ यात्रा काशी के बिना पूरी नहीं होती ...तीन लोक से न्यारी काशी ......ऐसा कहते हैं ....... पर इन गोरों को क्या मिलता है .........गंगा किनारे घाटों पर पड़े रहते हैं .....तंग सीलन भरी गलियों में घूमते रहते हैं ....कुछ गलियां तो इतनी तंग हैं की एक साथ दो आदमी निकल नहीं सकते .......एक अजीब सी कशिश है इन गलियों में .........गंगा किनारे इन घाटों पर .....यूँ तो गंगा आधे हिन्दुस्तान में बहती है .......पर बनारस की गंगा की तो बात ही कुछ और है ...........और यहीं गंगा के किनारे एक ऐसी अलमस्त फक्कड़ जीवन शैली ने जन्म लिया .......बनारस अपने फक्कडपन के लिए जाना जाता है .......किसी ज़माने में ,ठेठ बनारसी अंदाज़ में , लोग अलस्सुबह सूर्योदय से पहले गंगा किनारे पहुँच जाते थे .......वहां घंटों निपटना नहाना ,फिर विश्वनाथ जी के दर्शन करना , फिर भांग ठंडई.और बनारसी लस्सी के बाद ....ठेठ बनारसी नाश्ता ....कचौड़ी जलेबी का ......वाह क्या बात है ........साक्षात माँ अन्नपूर्णा विराज जाती हैं ...बनारस के ठेलों पर सुबह नाश्ते के समय ..........आज भी .........कभी बनारस आयें तो बनारस की कचौड़ी जलेबी का नाश्ता करना न भूलें ...........सुबह चार बजे का निकला बनारसी 10 बजे घर पहुँचता था ................क्या अलमस्त फक्कड़ जीवन रहा होगा उन दिनों ...........और इसी फक्कडपन से निकली ,बनारस में गाली गाने की परंपरा .........जी हाँ हर ख़ुशी के मौके पर ...या जब भी मस्ती का मूड हो .....जो की बनारसियों का हमेशा रहता है ........बारहों महीने चौबीसों घंटे .........वो गरियाते हैं ........गाली गाई जाती है ...कविता में ....लोक गीतों में ....स्वर में गा गा के गरियाते हैं ......जी हाँ बनारस में गालियों का पूरा साहित्य है ....नित नयी गालियाँ ईजाद होती हैं .....फिर मज़े ले ले के सुनायी जाती हैं .....होली पे तो बाकायदा एक कवि सम्मलेन होता है .......गालियों का .......अस्सी घाट पे ....हज़ारों की भीड़ जमा होती है .........एक से एक धुरंधर कवि जुटते हैं .........और फिर जो गालियों भरी कविता का दौर चलता है रात भर .....उसकी बाकायदा एक किताब छपती है हर साल .....कैसेट,CD निकलती है ........अब आप ही बताइये बनारस की गालियाँ शिव जी का प्रसाद न हुई तो क्या हुई ????????
पर यूँ न समझिएगा की बनारस में सिर्फ गाली ही गयी जाती है .....वहां एक गली है जनाब .......नाम है कबीर चौरा .....उस एक गली में आज तक जितने संगीतकार हुए उतने पूरे मुल्क में न हुए ....बनारस घराना शास्त्रीय संगीत का सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध घराना है ............आज भी बनारस में हज़ारों संगीतज्ञ रहते हैं ...........एक बड़ा मजेदार किस्सा याद आता है .........संकट मोचन मंदिर में संगीत सम्मलेन चल रहा था ....हम दोनों मियां बीवी बैठे थे .......पंडाल खचा खच भरा था ......तिल रखने की जगह न थी .....सबसे अंत में पंडित जसराज का गायन था .....रात ढाई बजे वो बैठे .............भीड़ चंपी हुई थी ...मेरी पत्नी जालंधर से गयी थे ...वो बोली ...अरे भीड़ तो जालंधर में भी होती है पर रात के ढाई बजे तो हॉल खाली हो ही जाता है ..........तो बगल में बैठा बनारसी बोला ....दरअसल वहां के लोग संगीत भी सुनते हैं ......पर बनारसी संगीत ही सुनते हैं ........जालंधर में भी संगीत सम्मलेन होते हैं ........साल में 3 -4 .....बनारस में रोज़ होते है 2 -4 .........
बनारस से इश्क की ये दास्ताँ आगे भी जारी रहेगी ..........
अब आपको भी ये पढ़ के अजीब सा ही लगेगा ....जी हाँ बनारस में गालियाँ गाई जाती है , ख़ास मौकों पर .....ख़ुशी के मौकों पर ...ठेठ बनारसी अंदाज़ में एन्जॉय करने के लिए........ बड़ा निराला शहर है ....बनारस ........मुझे इश्क है बनारस से ....बनारस है ही इश्क करने लायक .......ऐ खुदा बनारस को बुरी नज़र से बचाए रखना .......कुछ शहर होते हैं ....कुछ राजधानियां होती हैं ....पर कुछ संस्कारधानियां होती हैं .......कहते हैं की हिन्दुस्तान में जो संस्कार धानियां थीं या हैं वो हैं बनारस , कलकत्ता , पूना ,और जबलपुर ...........सुनते हैं एक और हुआ करती थी संस्कारधानी .....पर शायद उसके लिए किसी ने दुआ न की और उसे बुरी नज़र लग गयी ....लाहौर ........
कहाँ से शुरू करूँ , दास्ताने इश्क ए बनारस .....या काशी ...........लोग कहते हैं की दुनिया का सबसे पुराना शहर है .......शिव की नगरी है ...गंगा जी की नगरी है .......काशी ........मंदिरों का शहर है ....बताते हैं की पचास हज़ार से ज्यादा मंदिर हैं छोटे बड़े ......इतने सारे मंदिर ?????? दरअसल काशी की पुरानी परंपरा रही है .........जब भी कोई घर बनाता था , उस ज़माने में ......तो घर के बाहरी हिस्से में सामर्थ्य के अनुसार छोटा या बड़ा ...... मंदिर ज़रूर बनवाता था ...जैसे आजकल लोग अपने घरों में पूजा का एक कमरा बनवा लेते हैं .......आज भी वो मंदिर यूँ ही खड़े हैं बनारस के हर कोने में ..........सो मंदिरों का शहर है बनारस ........कुछ लोग भूतों का शहर भी कहते हैं .....city of ghosts ....वो यूँ की हज़ारों सालों से भारत में मान्यता रही है की काशी में मरने वाले सीधे स्वर्ग जाते हैं ........सो लोग अपने अंतिम दिन बनारस में बिताते हैं ....आज भी हज़ारों लोग मरने के लिए बनारस आते हैं .....(ख़ुदकुशी करने नहीं ) वो चाहते हैं की अंतिम सांस काशी में निकले ..........और जो यहाँ मर न सके ...उनकी इच्छा होती है की की अंतिम संस्कार ही काशी में हो जाए गंगा किनारे .........सैकड़ों संस्कार होते हैं आज भी यहाँ मणिकर्णिका घाट पे और हरिश्चंद्र घाट पे ....वहां जहाँ कहते हैं की राजा हरिश्चंद्र के ज़माने से आज तक कभी आग न बुझी ....लाखों साल हो गए .........
खिचे चले आते हैं लोग ...सिर्फ मरने वाले ही नहीं .......जीने वाले भी ........अलमस्त जिंदगी जीने वाले भी ........सबकी अपनी अपनी वजहें है ..........tourists के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है बनारस ..........हर किस्म के टूरिस्ट के लिए ........देसी हो चाहे विदेशी ......तीर्थ यात्रा काशी के बिना पूरी नहीं होती ...तीन लोक से न्यारी काशी ......ऐसा कहते हैं ....... पर इन गोरों को क्या मिलता है .........गंगा किनारे घाटों पर पड़े रहते हैं .....तंग सीलन भरी गलियों में घूमते रहते हैं ....कुछ गलियां तो इतनी तंग हैं की एक साथ दो आदमी निकल नहीं सकते .......एक अजीब सी कशिश है इन गलियों में .........गंगा किनारे इन घाटों पर .....यूँ तो गंगा आधे हिन्दुस्तान में बहती है .......पर बनारस की गंगा की तो बात ही कुछ और है ...........और यहीं गंगा के किनारे एक ऐसी अलमस्त फक्कड़ जीवन शैली ने जन्म लिया .......बनारस अपने फक्कडपन के लिए जाना जाता है .......किसी ज़माने में ,ठेठ बनारसी अंदाज़ में , लोग अलस्सुबह सूर्योदय से पहले गंगा किनारे पहुँच जाते थे .......वहां घंटों निपटना नहाना ,फिर विश्वनाथ जी के दर्शन करना , फिर भांग ठंडई.और बनारसी लस्सी के बाद ....ठेठ बनारसी नाश्ता ....कचौड़ी जलेबी का ......वाह क्या बात है ........साक्षात माँ अन्नपूर्णा विराज जाती हैं ...बनारस के ठेलों पर सुबह नाश्ते के समय ..........आज भी .........कभी बनारस आयें तो बनारस की कचौड़ी जलेबी का नाश्ता करना न भूलें ...........सुबह चार बजे का निकला बनारसी 10 बजे घर पहुँचता था ................क्या अलमस्त फक्कड़ जीवन रहा होगा उन दिनों ...........और इसी फक्कडपन से निकली ,बनारस में गाली गाने की परंपरा .........जी हाँ हर ख़ुशी के मौके पर ...या जब भी मस्ती का मूड हो .....जो की बनारसियों का हमेशा रहता है ........बारहों महीने चौबीसों घंटे .........वो गरियाते हैं ........गाली गाई जाती है ...कविता में ....लोक गीतों में ....स्वर में गा गा के गरियाते हैं ......जी हाँ बनारस में गालियों का पूरा साहित्य है ....नित नयी गालियाँ ईजाद होती हैं .....फिर मज़े ले ले के सुनायी जाती हैं .....होली पे तो बाकायदा एक कवि सम्मलेन होता है .......गालियों का .......अस्सी घाट पे ....हज़ारों की भीड़ जमा होती है .........एक से एक धुरंधर कवि जुटते हैं .........और फिर जो गालियों भरी कविता का दौर चलता है रात भर .....उसकी बाकायदा एक किताब छपती है हर साल .....कैसेट,CD निकलती है ........अब आप ही बताइये बनारस की गालियाँ शिव जी का प्रसाद न हुई तो क्या हुई ????????
पर यूँ न समझिएगा की बनारस में सिर्फ गाली ही गयी जाती है .....वहां एक गली है जनाब .......नाम है कबीर चौरा .....उस एक गली में आज तक जितने संगीतकार हुए उतने पूरे मुल्क में न हुए ....बनारस घराना शास्त्रीय संगीत का सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध घराना है ............आज भी बनारस में हज़ारों संगीतज्ञ रहते हैं ...........एक बड़ा मजेदार किस्सा याद आता है .........संकट मोचन मंदिर में संगीत सम्मलेन चल रहा था ....हम दोनों मियां बीवी बैठे थे .......पंडाल खचा खच भरा था ......तिल रखने की जगह न थी .....सबसे अंत में पंडित जसराज का गायन था .....रात ढाई बजे वो बैठे .............भीड़ चंपी हुई थी ...मेरी पत्नी जालंधर से गयी थे ...वो बोली ...अरे भीड़ तो जालंधर में भी होती है पर रात के ढाई बजे तो हॉल खाली हो ही जाता है ..........तो बगल में बैठा बनारसी बोला ....दरअसल वहां के लोग संगीत भी सुनते हैं ......पर बनारसी संगीत ही सुनते हैं ........जालंधर में भी संगीत सम्मलेन होते हैं ........साल में 3 -4 .....बनारस में रोज़ होते है 2 -4 .........
बनारस से इश्क की ये दास्ताँ आगे भी जारी रहेगी ..........
अच्छी जानकारी भरी रोचक पोस्ट।
ReplyDeleteकैसेट या सीडी से एक-आध गाली भरी कविता भी सुनवाईयेगा :)
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Poetic !!
ReplyDeleteone of those posts to which you feel like coming more than once. :)
जी हाँ...उस कवि सम्मलेन को "महामूर्ख सम्मलेन" कहते हैं....आगे की पंक्ति में काशी के बड़े ओहदों पर विराजमान लोग बैठते हैं...गंगा नदी में नावों पर ही पूरी दर्शक दीर्घा भी होती है.....गाली की शुरुआत मुख्य अतिथि को गरियाने से शुरू होती है.....
ReplyDeleteनहीं मनीष जी , आप दूसरे आयोजन की चर्चा कर रहे हैं ......जिस कवि सम्मलेन की बात मैं कर रहा हूँ वो होली की शाम , अस्सी चौराहे पर सड़क के बीचोबीच होता है ....पुब्लिक सड़क पे खड़ी हो के सुनती है ....और होली के नाम पे गरियाते हैं .....और गाली भी ऐसी वैसी नहीं ......हलकी फुलकी नहीं ........य्यय्य्य्ये मोटी मोटी ........
ReplyDeleteऐतिहासिक है अस्सी चौराहे पर होली के अवसर पर होने वाला गरियाऊ कवि सम्मेलन ...
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