Wednesday, July 31, 2013

गुलाम अली साहब के साथ…....... 6 घंटे

                                                               कोई साल भर पहले की बात है। दिल्ली से जालंधर आ रहा था।   सुबह 11 बजे पश्चिम एक्सप्रेस पकड़ी।  स्थानीय रेल यात्राओं के  लिए अपना नियम है।  गाड़ी में घुसते  ही सीट लो और सो जाओ। और जब कभी बाहर  जाओ , किसी नए इलाके  में , तो दिन में यात्रा करो और ट्रेन की खिड़की से भारत दर्शन करो। बहरहाल  उस दिन गाडी चली तो अपन ऊपर वाली बर्थ पे  पसर गए , पर उस दिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था।  बगल वाली सीट पे , वो जो बिलकुल सटी हुई पर फट्टे के उस तरफ होती है , उस पे एक सरदार जी लेटे हुए थे। उन्होंने अपने मोबाइल पे संगीत सुनना शुरू कर दिया।  यूँ मैं यात्रा में किसी  को अपने इर्द गिर्द गाने नहीं सुनने देता। तुरंत झिड़क देता हूँ।  हे इअर फोन लगाओ…वर्ना बंद करो ……अब इसमें कई बार गाजीपुर वाली गुंडई और हरियाणे वाली पहलवानी दिखानी पड़ जाती है ……

                                                          पर उस दिन माजरा कुछ और था। सरदार जी ने अपनी तो जैसे दुखती रग पे हाथ रख दिया। लगे ग़ुलाम अली की गजलें सुनने। और यूँ लगा जैसे समय की सुई मानो तीस साल पीछे चली गयी।  ज़िदगी मानो फ़्लैश बैक में चलने लगी …………गुलाम अली ……… जवानी उनकी सोहबत में गुजारी है। ………… दिन रात का साथ रहा करता था। ……… दिन में 18-18 घंटे सुना करते थे। ……… वाह। क्या दीवानगी थी ……क्या आलम था ……. 84 में उनसे परिचय हुआ।  हालांकि 82 में उनकी ग़ज़ल चुपके चुपके……. बहुत मशहूर हो चुकी थी , पर तब  तक अपने पास टेप रिकॉर्डर जैसा कुछ नहीं होता था। …… फिर 84 में अम्बाला में उनकी कैसेट सुनने को मिली। ……. और पहली बार में ही इश्क हो गया।  और एक बार जो परवान चढ़ा तो कई साल सिर पे चढ़ के बोला। वाह क्या ज़माना था …… उन दिनों हर महीने कोई न कोई नई कैसेट आती थी गुलाम अली साहब की। ………. और सिलसिला शुरू हुआ उनकी कैसेट खरीदने और सहेजने का। …… जब भी कोई नयी कैसेट आती , तुरंत ले के आते , फिर दिन रात उसे सुनते ……. 15 दिन में उसे सुन सुन के घिस डालते…फ़िर कोई नयी आयी है क्या ? शौकीनों की कमी नहीं थी …एक से एक दीवाने थे …… भाई लोगों के पास सौ सौ कैसेट का कलेक्शन होता था.  उनसे रिकॉर्डिंग करवा लेनी……. आपस में शेयर करना…… फिर एक समय आया जब नया माल मिलना बंद हो गया।  नई कैसेट भी कोई रोज़ाना थोड़े ही आती है। ………. पर अपना हाल तो नशेड़ियों वाला हो गया था। ……. फिर एक मित्र से पता चला की दिल्ली में जामा मस्जिद के सामने एक मीना बाज़ार है। ….उसमें हैं कुछ दूकान दार , उनके पास है बहुत बढ़िया कलेक्शन…… वहाँ पहुंचे……एक मियाँ जी बैठे थे …ये लम्बी दाढी थी ….उनके पास वाकई नायाब कलेक्शन था। ……… गुलाम अली और मेहदी हस्सन साहब की वो तमाम गजलें जो पकिस्तान में तो रिलीज़ हुई थीं पर हिन्दुस्तान में नहीं आयी थीं।  पर मियाँ जी का रेट बहुत टाइट था। ….एक ग़ज़ल के दस रु मांगते थे जो उन दिनों अच्छी खासी रकम थी ……मैं अपने साथ हमेशा SONY की ओरिजिनल blank कैसेट रखता था।  सो उस दिन 15  - 20 नई गजलें रिकॉर्ड कराई। फिर धीरे धीरे मीना बाज़ार का खजाना भी चुक गया।  फिर पता लगा दिल्ली में जनपथ पे Aadarsh stores का ……ये एक म्यूजिक स्टोर था जिनके पास बढ़िया कलेक्शन होता था। …… एक दिन मैं उनके यहाँ डुबकियां लगा रहा था ……काउंटर के नीचे एक अलमारी में रखी होती थी कैसेट ……. वो लड़का मुझे एक एक दराज़ निकाल के दिखाता जाता था.……फ़िर उसमे निकला एक खज़ाना … pirated पाकिस्तानी कैसेट्स का ……उन दिनों गुलाम अली साहब अक्सर हिन्दुस्तान आया करते थे …. पहली बार उन्हें रु ब रू सुना , दिल्ली के प्रगति मैदान के फलकनुमा open air theatre में …… ट्रेड फेयर के मेले में उन्हें भारत सरकार ने आमंत्रित किया था ………फिर उसके बाद एक बार वो खेल गाँव में आये थे ………. मैं और मेरे अभिन्न मित्र देवेन कालरा जी हम दोनों गए थे सुनने।  इंटरवल हुआ तो ग्रीन रूम में जा पहुंचे।  उस दिन जीवन में पहली बार उनसे हाथ मिलाया था।  वो स्पर्श आज तक याद है।  ऑटोग्राफ लिया था जो देवेन ने आज तक सम्हाल के रखा हुआ है।

                                                       गुलाम अली साहब की गजलों की दीवानगी के वजह से नित नयी दोस्तियाँ होती थीं।  लोग बाग़ एक दुसरे से कैसेट्स शेयर करते थे।  सालों चलता रहा ये सिलसिला।  फिर जैसा की ज़िन्दगी का दस्तूर होता है , वो आगे निकल जाती है।  कुछ लोग ज़िन्दगी में पीछे छूट जाते हैं।  धीरे धीरे गुलाम अली साहब  भी पीछे छूट गए।  सुगम संगीत का शौक develop होता हुआ विशुद्ध शास्त्रीय संगीत तक जा पहुंचा और नए खुदा मिल गए।  पंडित राजन साजन मिश्र , पंडित जसराज और भीम सेन जोशी सुनने लगे ………. बहुत सालों तक गुलाम अली और मेहदी हसन साहब की कैसेट घर में धूल फांकती रहीं। ………फिर एक मित्र मिले जिन्हें नया शौक हुआ था संगीत का सो एक दिन उन्हें वो सारी कैसेट्स दे दीं।  पर कुछ भी हो , जवानी का इश्क भुलाए नहीं भूलता ………… एक किस्सा याद आता है। ….दिल्ली में  अपनी बहन के घर बैठे थे ………खुशनुमा माहौल था …………. TV देख रहे थे।  तभी एक कार्यक्रम में गुलाम अली साहब की सिर्फ एक लाइन सुनी……और उनकी आवाज़ में जो खनक थी ………सीधे रूह तक पहुँचती थी………. और हम लोग उठ खड़े हुए………. टीवी बंद किया , दूसरे कमरे में म्यूजिक सिस्टम पड़ा था………. और ढेरों कैसेट्स थी …… देर रात तक सुनते रहे……

                                                  फिर सालों बाद , उस दिन पश्चिम एक्सप्रेस में वो सरदार जी बजाते रहे और मैं सुनता रहा।  एक एक कर वो सारी गजलें सामने से  गुजरने लगीं ………… मुझे ताज्जुब हुआ , इतने सालों बाद भी ,  एक एक beat याद थी मुझे , यूँ लगा मानो कल ही की तो बात थी ………… और हर ग़ज़ल के साथ वो तमाम वाकयात जो उनसे जुड़े हुए थे , याद आने लगे ………… ये जो है हुक्म मेरे पास न आये कोई ……… इसलिए रूठ रहे हैं की मनाये कोई …………  सहर होने तक …… ये नाम था एल्बम का ……. भिवानी में देवेन कालरा के घर सुनते थे………… शिद्दते गर्मिए अहसास से ढल जाउंगा …… पटिआला में मेरी नयी नयी शादी हुई थी , और वो लाल वाला टेप रिकॉर्डर था। ….उस पे  सुनते थे सारी सारी रात……कल चौदवीं की रात थी , शब् भर रहा चर्चा तेरा ……अम्बाला में मुन्ना भाई के घर सुनी थी पहली बार …………. दिल्ली से जालंधर तक का 6 घंटे का सफ़र , कब बीत गया , पता ही न लगा।  जालंधर उतरा तो सरदार जी को धीरे से कहा , धन्यवाद……वो confuse हो गए ……….  इस बेहतरीन म्यूजिक के लिए……








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